आज थोड़ा बेसबर, शाम ए सफर लगता है,
बरसने की फिराक में, अबर लगता है,
यू तो हर शाम, काम में लगती है,
आज सांसों पर मौसम का असर लगता है,
सोच सोच के मुझे ये डर लगता है,
कल घर नहीं लगेगा, जो घर लगता है,
आज आंख लगे, और कल ना खुले,
बिस्तर मेरे गले, इस कदर लगता है,
उमर लग जाती है, दिल लगाने में,
और फिर दिल कही और जा लगता है,
मेरे साथ ऐसा होगा नही, मुझे लगता नहीं,
हो भी सकता है, मगर लगता है,
रोने से आंखे साफ होती हैं,
जख्म हसी से पता लगता है,
वो खेलना कूदना, कितना सही लगता था,
ये शेर ओ शायरी, गलत संगत का असर लगता है,
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