ना हो फिर ये जख्म हरा,
कैसे
काबू हो इस आदत
पे,
भर
आता है दिल किनारों
तक,
तो
बह जाता है कागज़
पे,
एक दिल एक घर ना बना,
महल
बनते इस लागत पे,
एक
हाथ मिलाकर ना मिला,
मिलता
खुदा इबादत से,
वो
हसीं कोई इशारा नहीं,
शहर
आबाद है उस आदत
पे,
वो
गुल बाग में खिला
रहे,
तुम
छुना उसे इजाजत से,
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