मैं क्या हूं, और ये जीवन क्या है, जबसे होश आया है मैं इन दो सवालों का जवाब ढूंढने में गुम हूं, इन दो सवालों ने मुझे काफी बनाया और बर्बाद किया है, जैसे जहां एक तरफ एस्थेनोस्फीयर में बनती कन्वेंशनल(पारंपरिक) धारा से धरती(सथलमंडल) फटती है और उससे निकलने वाले खनिज भरपूर लावा से टेक्टानिक परत का निर्माण होता है, वहीं दूसरी तरफ दुनियां के किसी और कोने में एक भारी टेक्टानिक परत अपने से कम भारी परत के नीचे धस कर नष्ट हो जाती है।
जैसे एक तरफ गरम सागर से वाष्प में बदलता जल ऊंचाई की और जाकर बादल का निर्माण करता है, वहीं दूसरी और बादल हवा के साथ चल, अलग अलग स्थान पर बरसाता है और फिर से दरिया में, नदिया में, समुंदर में बदलता है।
जहां एक तरफ सैल डिवाइड होते हैं, हम पैदा होते हैं, सैल रोज मरते हैं, सैल रोज बनते हैं, वही दूसरी तरफ जब सैल मरने की प्रक्रिया, सैल बनने की प्रक्रिया से धीमी हो जाती हैं हम भी एक अन्त की और या नई शुरुवात की और चलने लगते हैं,
अगर शुरुवात ही अन्त है तो विज्ञान के हिसाब से कार्य सुन्य हुआ, ऐसे गोल गोल घूमने का क्या अर्थ, शायद जीवन को शब्दो में पिरोना इतना आसान नहीं, थोड़ी और कोशिश होनी चाहिए,
एक गोलाकार प्रक्रिया कई अन्य गोलाकार परक्रियाओं के साथ मिलकर कई अन्य गोलाकार प्रिक्रयाओं को जन्म देती है, इन्ही चक्रों के संतुलन को जीवन, भगवान, राक्षस, प्रकृति, निर्माण या विनाश कहा जा सकता है, जैसे जब एक टेक्टानिक परत दूसरी के नीचे धस कर मरती है तो वो मरते मरते दूसरी परत के किनारों पर जमा अवसादो(जियोसिंक्लिन) को ऊपर उठा जाती है और जिस से पहाड़ का जन्म होता है, जैसे हिमालय, जोकी खुद बादलो से बरसने वाली नदियों में घुल कर नष्ट होता है, पर वो नदियां चलते चलते, नमी के साथ उस पहाड़ को अपने आस पास सारी धरती पे बिखेर जाती हैं और खुद समुंदर में जा मिलती है, वो नमी, वो बिखरा पहाड़ मैदानों का निर्माण करते हैं, और एक अलग जीवन को जन्म देते हैं पेड़, पौधे, जीव, जंतु जो खुद भी कभी न कभी नष्ट हो जाएंगे पर उस से पहले या उसके बाद वो भी किसी और जीवन का भाग होंगे।
हम अक्सर विनाश और निर्माण को दो अलग नजरो से देखते हैं, किंतु ब्रह्मांड में ऊर्जा और कणों की मात्रा सीमित है, कुछ बनेगा तो कुछ बर्बाद होगा, ये चेतना(कॉन्शियस) जो मुझे तुम्हे कुछ पल के लिए मिली है, ये पल बेहद जरूरी है, इस पल में मैं ये दुनिया अपने नजरिए से देखना चाहता हूं , इसके बाद मैं भी अपना ये अस्तित्व खो दूंगा, अलग अलग कणों में टूट जाऊंगा, शायद थोड़ा पत्थर , थोड़ा पेड़ , थोड़ा जानवर, थोड़ा रेत।
नजरिया भी एक विचित्र शक्ति है, प्रकृति ने हमें कुछ भी सुनिश्चित करके नहीं दिया, ना काल,ना स्थान, ना माप, ना ही कुछ और, एक सच के अनेक सच संभव हैं, जो गिनती डेसिमल में गिने, वो भी ठीक, कोई बाइनरी में, वो भी, मुंह से निकलने वाली एक ही ध्वनि की कितनी लिपि हैं, बस आगे जाती है या पेड़ पीछे जाते हैं, ये नजरिए और सहूलियत पे निर्भर करता है के किसी भी चीज को किस समय, किस हालत और किस जगह पर किस उपयोग के लिए किस नजरिए से देखा गया, कोई नेता कभी पगड़ी पहने, कभी तिलक, कभी मूल्ला टोपी.
मैं नजरिए, धर्म और नेता को एक साथ लिखने की गलती कर चुका हूं, तो मैं यहां धर्म, राजनीति, समाज, आदमी पर थोड़ा और लिखने की कोशिश करूंगा ताकि किसी के नजरिए में सही हो जाऊं, किसी के में गलत।
हम अक्सर चीजों को हम या तुम, अच्छे या बुरे में डालने के पीछे भागते हैं और हम सदा अच्छे ही होते हैं।
एक सच ये भी है आदमी बोहोत बड़ा "मैं" है और वो खुद को किसी भी "तू" से ज्यादा सही,बड़ा या अच्छा साबित करना चाहता है, और कई "मैं" और "मैं" मिलके एक "हम" बनाता है, एक सच ये भी वो "हम" एक दूसरे के काम भी आता है पर एक सच ये भी के जब उन्हें कोई और "तुम" मिले तो वो खुदको फिर से सही, बड़ा या अच्छा साबित करने के पीछे भाग पड़ता है , एक सच यह भी के वो "हम" अपने किसी "मैं" को "तू" या "तुम" में बदलता नही देखना चाहता।
ये गुण या दोष और जानवरो में भी मिलता है, पर इंसान से बड़ा कोई "हम" नही है,
जहां अलग नज़रिए उन्नति का काम करते हैं वही विचारो का टकराव भी पैदा होता है,
ये ही है इंसान की इंसान से, इंसान की समाज से, समाज की इंसान से, समाज की समाज से, देश की देश से, पुरुष की औरत से, समाज की औरत से, भगवान की शैतान से लड़ाई,
देश अपने सिद्धांतों का निर्यात करते हैं, धर्म प्रचारक धर्म का फैलाओ, लोग एक दूसरे की पीठ पीछे बात, यही है "समाज क्या कहेगा" का नारा देने वाली आवाज का कारण।
इसमें कुछ अच्छा या बुरा नही कहा जा सकता, ये प्रकृति है,
जैसे डर हमें बुरे अनुभव से बचाता भी है और नए अनुभव से रोकता भी है, पर समझदारी केवल ये आखने में नही की कहां डर सही है और कहां गलत, किंतु खराब कितना खराब है सही कितना सही जानना भी बेहद जरूरी है।
एक समाज जिसमे प्यार करने की इजाज़त नहीं, एक समाज नही, प्रेम एक ऐसा विषय है जिसका मैं कभी सही आंकलन नही कर पाया, अब मैं कोशिश भी नही करता,ये एक सत्य है जिसे सबको सुनना चाहिए, कई स्थान पर आदमी को समाज के विकास के लिए त्याग करना चाहिए जैसे जरूरत से अधिक पूंजी और कई जगह समाज को आदमी के विकास के लिए , पर प्रेम एक विषय है जहां एक समाज और आदमी दोनो के विकास के लिए तार्किक रिश्तों के लिए समाज की सहमति होनी चाहिए, क्योंकि प्रेम इंसान का एक ऐसा भाव है जो समाज में उदारता, सहनशीलता, विबिंता लाता है, अगर ये भाव भड़ेंगे तो ताकत के भाव के साथ संतुलन होगा, जो समाज में व्यवस्था तो लाता है किंतु साथ लाता है छल, कपट, अहंकार जैसे भाव, यही कारण है कि आप जितना दूसरो को नीचे खींचकर ऊपर जाते हैं, उसी तरह कोई आपको भी पीछे से खीच रहा है, बार बार ये प्रकृतियां इंसान में देखने को मिली है, तभी इतिहास खुद को दोहराता है।
प्रकृति के कुछ सिद्धांत है जो उसे हमेशा गोल घुमाते रहेंगे, इस चक्र में इंसान कब तक रहना चाहता हैं ये हमारी तार्किकता और सद्बुद्धि पर निर्भर करता है।
- शुभम्